आज मेरा एक नए स्कूल में पहला दिन था।इसलिए उत्सुकतावस घर से जल्दी चल दिया।जल्दबाजी में मैंने भोजन भी नही किया।स्कूल में मेरी छः पीरियड लगाया गया था।चार घंटी लगने के बाद मध्यावकाश हुआ।तब तक भूख भी लग चुकी थी।लेकिन आस-पास खाने की कोई दुकान भी नही थी।विद्यालय परिसर के एक तरफ किनारे पर मैंने देखा, बच्चे एक जगह एकत्रित होकर मानों कुछ खरीद रहे हो।कुछ समय बाद जब बच्चे वहाँ से हट गए तो मैंने देखा कि एक बुढ़िया दादी और एक आठ साल का लड़का शायद उनका पौत्र था,नीचे जमीन पर एक दरी पर बैठे हुए थे और अपने सामने बहुत सारे खाने वाले साधारण सामान फैलाये हुए थे। जैसे टॉफी, बिस्कुट, इमली,छोटे-छोटे पॉलिथीन में बंद कुछ नमकीन जैसी खाने वाली चीज।शायद दो-चार चीजें और रही होंगी जिनका मैं नाम नही जानता था।लेकिन इन सब चीजों में वह चीज जिसकी सबसे अधिक मांग थी,वह थी लाई, नमकीन, प्याज और हरे मिर्च का मिश्रण था।इस वस्तु की अधिक मांग का कारण ये था कि हमारे स्कूल में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों से थे।स्कूल का समय जल्दी रहने या और किसी कारण से वे टिफ़िन लेकर नही आते थे।इसलिए उस चीज को जिसे हम 'दाना'(झालमुड़ीं)कहते थे,की अधिक मांग थी।कम से कम यह बच्चों की क्षुधा को काफी शांत कर देता था। मैंने देखा की अधिकांश बच्चे पाँच रुपये का दाना खरीदते थे और बड़े ही मन से खाते थे।चूंकि वह उस दाना को बनाने के लिए सभी सामानों को एक निश्चित अनुपात में प्रयोग करती थी जिससे उनका स्वाद बहुत अच्छा लगता था।जब बच्चों की भीड़ कम हो गई तो मैंने पांच रुपये अपनी जेब से निकलकर चपरासी को दाना लाने के लिए भेजा।जब उन्हें मालूम हुआ कि यह दाना अध्यापकों के लिये है तो उन्होंने बड़े मन से उस दानें को बनाकर भेजवाया।उन्होंने उन दानों में से नही दिया जो दाना वह बेचने के लिए पहले से ही बनाकर रखी थी।पांच रुपये में जितना दाना वह दूसरों को देती थी उसकी लगभग दोगुनी मात्रा उन्होंने हमारे लिए दिया। सभी अध्यापकों ने उस दानें को साथ मिलकर खाया जो बहुत स्वादिष्ट लग रहा था।मेरे भूखे पेट को थोड़ा राहत मिली।तब से हम लोग नियमित रूप से मध्यावकाश में पांच रुपये का दाना मँगाकर उपभोग करने लगें।लेकिन उस पांच रुपये का दाना रोज मंगाये कौन? यह भी एक समस्या थी।सच कहूं तो पांच रुपये किसी अध्यापक की जेब से निकालने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़ते थे।उस पांच रुपये के लिए शाम,दाम दंड,भेद सबकुछ अपनाना पड़ता था।कभी किसी से प्रार्थना करके,कभी व्यंग्य करके,कभी कसम दिलाकरके पैसे निकलवाने पड़ते थे।सच कहूं तो उसमें सबसे कंजूस शिक्षक मैं ही था।हम हिंदी मीडियम के प्राइवेट अद्यापक थे।हमारी तनख्वाह भी बहुत कम थी।किसी की 1200 रुपये,किसी की 1000 तथा किसी की 800 रुपये भी थी।कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई भी दाना मंगाने को तैयार नही होता और सभी बिना खाये ही रह जाते।लेकिन उस दानें की ऐसी लत लग गयी थी जैसे किसी नसेड़ी को नशे की लत लग जाती है।बिना दाना का उपभोग किये वह मध्यावकाश का समय बड़ा रुचिहिन लगता। रोज-रोज की इस समस्या से बचने के लिए हमने एक नियम बना दिया। सप्ताह के प्रत्येक दिन के लिए हमने एक व्यक्ति को निर्धारित कर दिया की सप्ताह के प्रत्येक दिन फलां व्यक्ति फलां दिन को दाना मंगाएगा।लेकिन समस्या तब होती थी जब कोई अध्यापक अनुपस्थित हो जाता।उस दिन बिना खाये ही रह जाते थे या ऊपर दफ्तर में बैठे बड़े बाबू से जुगाड़ लगाया जाता।पहले तो वे तिरछी नजरों से गुस्से में देखते लेकिन थोड़ी देर बाद पैसे निकालकर दे देते।मुझे उस विद्यालय में पढ़ाते हुए सात-आठ साल हो गए।लेकिन हम रोज पांच रुपए देकर दाना मंगवाते और बड़े चाव से खाते।कभी-कभी दानें की मात्रा कम होती तो हम कहते कि देखो दादी अब लूट रही है।आज कितना कम दाना दिया है।लेकिन हमने कभी भी इस बात पर विचार नही किया कि महँगाई कितनी बढ़ गयी थी।अन्य वस्तुओं के दाम तीन से चार गुना बढ़ गए थे।फिर भी जिस दानें की मात्रा वह देती थी वह वर्तमान मूल्य से चार गुना अधिक था।एक दिन चपरासी नही आया था सो मैं खुद दाना लेने के लिए उनकी दुकान पर चला गया।मुझे देखते ही वो बोली अरे सर् जी आप क्यों चले आये।बच्चों से कहलवा दिया होता तो मैं स्वयं पहुंचा देती।मैंने कहा कि आज दस रुपये का दाना दे दीजिए।उन्होंने ने बड़े भाव से दाना तैयार किया और मुझे थमा दिया।जब मैं पैसे देने लगा तो उन्होंने लेने से मन कर दिया और कहा नही सर् जी आज दाना मेरी तरफ से है।मैंने जिद भी किया लेकिन वो हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और लेने से मन कर दिया।लेकिन आज उनके चेहरे पर एक अजीब सा भाव था।बड़ी शांति और संतुष्टि दिखाई दे रही थी।कुछ और भी भाव थे जिन्हें मैं समझने में असमर्थ था।खैर मैं अपने दानें को लिया और उन्हें धन्यवाद देकर चल दिया।आज दाना खाते समय हम लोगों ने इस बात पर विचार किया कि हम लोग पिछले छः -सात सालो से केवल पांच रुपये का दाना मँगाकर खा रहे हैं और वह उतने सालों में वही मात्रा दे रहीं हैं जो मात्रा वह छः-सात साल पहले देती थी।आज महंगाई चार से पांच गुना बढ़ गयी है।उन्होंने ने कभी कुछ कहा नही।किसी गरीब का इस तरह से खाना हम जैसे जिम्मेदार शिक्षकों के लिये अच्छा नही है।हम लोगों ने निर्णय किया कि नही, अब कल से दस रुपये का दाना आएगा और आज के दानें के पैसे भी हम उन्हें कल दे देंगे और पहले के भी दो या तीन दिनों के बकाया पैसे हैं, उन्हें भी दे देंगे।किसी गरीब का इस तरह लाभ उठाना ठीक नहीं है।अगले दिन हम सभी फिर नियमित समय पर स्कूल आए।लेकिन उस दिन न तो बूढ़ी दादी दिखाई दी नही उनकी दुकान।मैंने सोचा चलो किसी और दिन दे देंगे।
लेकिन उसके बाद कई दिनों तक उनकी दुकान दिखाई नही दी।लेकिन दाना खाने की जो आदत लग चुकी थी कि मध्यावकाश के समय मन उस दानें के लिये कचोटने लगता।हम इधर-उधर से दूसरी चीजे मँगाकर खातें लेकिन मन नही भरता।लगभग 14 या 15 दिन बाद मध्यावकाश के समय हम सभी शिक्षक पेड़ के नीचे बैठे हुए थे तभी देखा कि बच्चे पॉलीथीन में दाना लेकर खा रहे थे।हम समझ गए कि दाना वाली दादी आ गयी हैं।पिछले एक दो महीने से उनकी दुकान स्कूल के पीछे लागती थी।इसलिए विद्यालय परिसर से दुकान दिखाई नही देती था।मैंने सोचा कि आज मैं उनका बाकी पैसा वापस कर दूंगा और आज से दस रुपये का दाना मँगाया करूंगा।मैं खुद उनकी दुकान पर गया।लेकिन वहाँ जाकर देखा तो केवल उनका पौत्र ही वहाँ बैठा हुआ था।वह दादी दिखाई नहीं दी।मैंने उस बच्चे से पूछा जो अब छः-सात सालों में काफी बड़ा और समझदार हो गया था,"क्या आज तुम्हारी दादी नही आयी है?।बच्चा अपना चेहरा मेरी तरफ ऊपर की ओर उठाया और कुछ देर मुझे देखता रहा।इन चंद पलों में मैंने उसके चेहरे पर बदलते हुए भाव को देखा जो शायद किसी दुःख का प्रतिनिधित्व कर रही था।कुछ बोलने से पहले उसकी आँखों में आँसू आ गए थे।उसने धीरे से रुँधे हुए गले से कहा,"सर् जी, मेरी दादी माँ गुजर गयीं"इतना सुनते ही मैं स्तब्ध हो गया।ऐसे लगा कि जैसे कोई अपना चला गया।मैंने अपनी जेब मे हाँथ डाला और पैसा बाहर निकाला।वही एकमात्र सौ रुपये की नोट मेरी जेब में थी जिसे मैंने सरकारी नौकरी का फार्म भरने के लिए रखा था,उस बच्चे के हाथ पर रख दिया।बच्चे ने बड़ी उत्सुकतावस पूछा"सर्, आपको क्या चाहिए?"मैंने कहा कुछ नहीं, तुम्हारी दादी का पैसा बाकी था।"बच्चे ने कहा," कितना काटना है।"मैंने कहाँ,"कुछ नही,सब रख लो।"फिर एक कर्जदार की तरह सिर झुकाए मैं वहाँ से चल दिया।कुछ समय बाद मैं किसी दूसरे विद्यालय में चला गया।वहाँ पर हम सभी मध्यावकाश के समय कई खानेवाली चीजों का उपभोग करते हैं लेकिन आज भी उस बूढ़ी दादी के दानें (झालमुड़ीं) का कोई जोड़ नहीं।
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