Skip to main content

रॉबिन्स द्वारा की गई अर्थशास्त्र की परिभाषा ( Robbins ' Definition of Economics )

 रॉबिन्स द्वारा की गई अर्थशास्त्र की  परिभाषा ( Robbins ' Definition of Economics ) 

ब्रिटेन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लॉर्ड रॉबिन्स  ( Lord Robbins ) ने अर्थशास्त्र की परिभाषा अपनी पुस्तक ' Nature and Significance of Economic Science ' में दी जो कि बहुत समय तक सही और ठीक मानी जाती रही है । परंतु आजकल यह समझा जाता है कि रॉबिंस की परिभाषा भी आर्थिक सिद्धांत की विषय - वस्तु को ठीक तथा पर्याप्त रूप से व्यक्त नहीं करती । रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र के स्वरूप के प्रचलित दृष्टिकोण को चुनौती दी । हमने उनके ऊपर कुछ विरोधों का उल्लेख किया है । वह अपने से पूर्व की स्वीकृत और विख्यात अर्थशास्त्र की परिभाषाओं को वर्गीकृत   ( classificatory ) तथा अवैज्ञानिक ( unscientific ) कहते हैं । उनके मतानुसार “ भौतिक " शब्द ने अर्थशास्त्र को अनावश्यक रूप से सीमित कर दिया है और अर्थशास्त्र की कल्याण की धारणा में व्यापकता और सूक्ष्मता नहीं है । रॉबिंस का दृढ़ विश्वास है कि उसकी परिभाषा में इनमें से कोई भी त्रुटि नहीं पाई जाती है । रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार की है : " अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो अनेक उद्देश्यों और वैकल्पिक उपयोगों वाले दुर्लभ साधनों के संबंध में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है । " ( " Economics is a science which studies human behaviour as a relationship between ends and scarce means which have alternative uses . " )

 उपर्युक्त परिभाषा में " उद्देश्यों " ( ends ) से अभिप्राय मानवीय आवश्यकताओं अथवा इच्छाओं से है जो कि असीमित हैं । परंतु आवश्यकताओं की तुष्टि करने वाले साधन दुर्लभ हैं । साधनों से अभिप्राय रुपए , समय , वस्तुओं तथा उत्पादन के साधनों से है । जब मनुष्य के साधन सीमित होते हैं और उनसे उसकी सभी आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो सकतीं , तो उसके लिए यह समस्या उत्पन्न हो जाती है कि वह किन आवश्यकताओं की पूर्ति करे और किन को अपूर्ण रहने दे । अतएव मनुष्य को आवश्यकताओं में चुनाव ( choice ) करना पड़ता है । रॉबिन्स के अनुसार मनुष्य की यही मूल आर्थिक समस्या है और इसी का अर्थशास्त्र में अध्ययन किया जाता है । रॉबिन्स द्वारा की गई उक्त परिभाषा अधिक प्रचलित रही है और यह अर्थशास्त्र का सार है और इसके सारे सिद्धांतों की आधार - भूमि मानी जाती है । इसलिए यह आवश्यक है कि उसकी सविस्तार व्याख्या की जाए । इसे ध्यानपूर्वक पढ़ने से पता चलेगा कि यह तीन निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है    

( क ) असीमित आवश्यकताएँ ( Unlimited Wants ) — पहला महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मानव की आवश्यकताएँ अनगिनत अथवा असीमित हैं , मनुष्य किसी भी तरह इन सबको पूरा नहीं कर सकता । यदि कोई एक आवश्यकता संतुष्ट होती है तो तुरंत कोई दूसरी आवश्यकता उठ खड़ी होती है । इस परिभाषा में जो शब्द उद्देश्य ( ends ) आता है , उसका अर्थ मानवीय इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ हैं । यदि कहीं हमारी इच्छाएँ सीमित होतीं , तो फिर कोई आर्थिक समस्या नहीं होती । तब पशुओं की भाँति हम भी अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं ( primary wants ) की पूर्ति करके बिल्कुल संतुष्ट हो जाते और हमें जीविका संबंधी कोई अधिक प्रयास या श्रम न करना पड़ता ।

 ( ख ) दुर्लभ साधन ( Scarce Means ) – दूसरा तथ्य यह है कि हमारे पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो साधन हैं , वे दुर्लभ  अथवा सीमित हैं । यदि कहीं साधन भी हमारी इच्छाओं की भाँति असंख्य होते , तब तो कोई आर्थिक समस्या उत्पन्न न होती । साधनों के असीमित होने की स्थिति में तो जब और जहाँ कहीं हम जो चाहते , किसी भी मात्रा में पा लेते , क्योंकि ऐसी दशा में समस्त वस्तुएँ निर्मूल्य अथवा नैसर्गिक पदार्थ ( free goods ) होतीं । किंतु वास्तव में अधिकतर वस्तुएँ जिनकी हमें इच्छा होती है , दुर्लभ हैं और उन्हें पाने के लिए हमें कीमत चुकानी पड़ती है अथवा परिश्रम करना पड़ता है । जब हम कहते हैं कि साधन दुर्लभ हैं , तो हमारा अभिप्राय केवल उनकी गिनती या मात्रा से नहीं होता । गेहूँ , कोयला आदि पदार्थ बहुत बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं , परंतु उनके लिए हमारी मांग उनकी मात्रा से कहीं अधिक है । यही कारण है कि ऐसे पदार्थों को दुर्लभ अथवा सीमित माना जाता है । उपर्युक्त दो तथ्यों से आर्थिक समस्या उत्पन्न होती है । जब आवश्यकताओं की तुलना में साधन दुर्लभ हैं तो मनुष्य को यह चुनाव करना पड़ता है कि किन आवश्यकताओं की तुष्टि की जाए और किन को असंतुष्ट छोड़ दिया जाए ।

 ( ग ) साधनों के वैकल्पिक उपयोग ( Alternative Uses of the Means ) तीसरा तथ्य यह है कि हमारे सभी साधन केवल अल्प अथवा दुर्लभ ही नहीं वरन् प्रत्येक साधन के अनेक वैकल्पिक ( alternative ) उपयोग ( uses ) होते हैं , अर्थात् उनमें से प्रत्येक को हम कई भिन्न - भिन्न कार्यों में प्रयोग कर सकते हैं , जैसे कि कोयला खाना पकाने , कारखाने तथा रेलगाड़ियाँ चलाने आदि कई अन्य कार्यों में उपयोग होता है । यदि किसी वस्तु का केवल एक ही उपयोग है तो तब कोई चुनाव की समस्या उत्पन्न नहीं होती क्योंकि चुनाव तब करना होता है जब वस्तु के कई वैकल्पिक उपयोग हों । जब वस्तु का उपयोग ही एक हो तो यह उसी विशेष उपयोग के लिए प्रयोग होगी । जब साधनों का कई वैकल्पिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग हो सके तो चुनाव करना पड़ता है कि दुर्लभ साधनों को किन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जाए । जब तक उपर्युक्त तीनों परिस्थितियां न हों तब तक कोई आर्थिक समस्या उत्पन्न नहीं होगी । केवल आवश्यकताओं का असीमित होना अथवा साधनों की दुर्लभता अथवा केवल दुर्लभ साधनों की वैकल्पिक प्रयोजनीयता अकेले ही आर्थिक समस्या उत्पन्न नहीं कर सकतीं । परंतु जब साध्य की प्राप्ति के लिए समय और साधन सीमित तथा वैकल्पिक प्रयोगों के योग्य होते हैं और साध्य महत्व की दृष्टि से विभेद - योग्य होते हैं तब व्यवहार अवश्य ही चयन ( choice ) का रूप धारण कर लेता है । यह आर्थिक समस्या ( economic problem ) है और इसका अध्ययन करना ही अर्थशास्त्र का विषय है । रॉबिन्स के मतानुसार , आर्थिक क्रिया अनेक साध्यों को पूरा करने के लिए मनुष्य द्वारा दुर्लभ साधनों का उपयोग है । साधनों का अभिप्राय वस्तुओं , पूँजी , भूमि , समय , द्रव्य अथवा किसी  अन्य प्रकार की संपत्ति से है । वे सब सीमित हैं ।

रॉबिन्स की तरह कई अन्य अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र की परिभाषा दुर्लभ साधनों से आवश्यकताओं की अधिकतम संभव तुष्टि की प्राप्ति के रूप में की है । " अर्थशास्त्र उन नियमों का अध्ययन है जिनके अनुसार एक समाज के साधन इस प्रकार व्यवस्थित तथा संगठित किए जाएं जिनसे सामाजिक लक्ष्य बिना अपव्यय के प्राप्त हो सकें।" ( विकस्टीड )

 इसी प्रकार स्टिगलर ( Stigler ) के शब्दों में , “ अर्थशास्त्र उन सिद्धांतों का अध्ययन है जो प्रतिस्पर्धी लक्ष्यों में दुर्लभ साधनों के बँटवारे को निर्धारित करते हैं जबकि बँटवारे का उद्देश्य लक्ष्यों ( आवश्यकताओं ) की अधिकतम संभव प्राप्ति करना है । ' '

इस प्रकार रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र के भौतिक कल्याण पर आधारित ढांचे को तोड़ कर इसे एक नया स्वरूप दिया है जिसके तीन आधार हैं : आवश्यकताओं का असीमित होना , साधनों का दुर्लभ होना तथा दुर्लभ साधनों का कई वैकल्पिक उपयोगों में काम आ सकना । इन तीन तथ्यों को जोड़कर हम कह सकते हैं कि रॉबिन्स की परिभाषा के अनुसार अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जिसमें हम यह अध्ययन करते हैं कि मनुष्य अल्प साधनों का किस प्रकार प्रयोग करके अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । अर्थशास्त्र हमें बताता है कि हम अल्प साधनों से किस प्रकार अधिकतम लाभ उठा सकते हैं । रॉबिन्स का दृढ़ विश्वास है कि उनकी परिभाषा अन्य परिभाषाओं से श्रेष्ठ है । उनके विचार में यह अधिक वैज्ञानिक है । यह इसके क्षेत्र को बढ़ाती है जब कि भौतिक परिभाषा अर्थशास्त्र को संकुचित करती है । यह कुछ ऐसे नियम सामने रखती जो हर समय प्रत्येक स्थान पर सही हैं । जैसे कि विकस्टीड ( Wicksteed ) का कथन है , " अर्थशास्त्र के नियम जीवन के नियमों की भाँति हैं और उन क्षेत्रों में भी सत्य उतरते हैं जिनका कार्य - व्यवसाय तथा धन - उत्पादन से किसी प्रकार का संबंध नहीं है । " 

जब अर्थशास्त्र की इस प्रकार परिभाषा की जाती तब इस पर नीचता , धन से मोह अथवा कुबेर की पूजा का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता । इसको अब एक निकृष्ट ( dismal ) विज्ञान भी नहीं कहा जा सकता । इस पर साध्यों के चुनाव का कोई उत्तरदायित्व नहीं है । साध्य अच्छे हों या बुरे , इसका अर्थशास्त्र से कोई संबंध नहीं है । जहाँ कहीं साध्य अनेक हैं तथा साधन न्यून हैं वहाँ अर्थशास्त्र का सीधा संबंध है ।

 रॉबिन्स की परिभाषा का आलोचनात्मक मूल्यांकन ( A Critical Evalution of Robbins ' Definition of Economics )

 परंतु रॉबिन्स की परिभाषा के भी समालोचक हैं । मार्शल की विचारधारा का अभी अंत नहीं हुआ है । डरबिन ( Durbin ) , फ्रेजर ( Fraser ) , वूटन ( Wooton ) , बैवरिज ( Baveridge ) जैसे अर्थशास्त्रियों ने मार्शल के अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का बड़ा समर्थन किया है । वूटन ( Wootton ) का कथन है कि " अर्थशास्त्रियों के लिए यह बहुत ही कठिन है कि वे अर्थशास्त्र के विवेचन से उद्देश्यों व साध्यों को पूर्ण रूप से हटा दें । " फ्रेजर के अनुसार , " अर्थशास्त्र मूल्य - सिद्धांत ( Value Theory ) अथवा संतुलन विश्लेषण ( Equilibrium Analysis ) से कहीं अधिक है । " यद्यपि रॉबिन्स की अर्थशास्त्र की धारणा अधिक वैज्ञानिक है पर इसने अर्थशास्त्र को अव्यक्तिगत ( impersonal ) नीरस ( colourless ) तथा उद्देश्यों के प्रति तटस्थ बना दिया है । रॉबिन्स के विचार में संतुलन केवल संतुलन ही है ( Equilibrium is just an equilibrium ) । यह कहा जाता है कि रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र को केवल मूल्य - निर्धारण का सिद्धांत ही बना दिया और अर्थशास्त्र के अध्ययन के अन्य भागों की उपेक्षा की है । रॉबिन्स की परिभाषा पर निम्न आलोचनाएँ की गई हैं ।

 प्रथम , यह कहा जाता है कि रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र का जन - कल्याण से संबंध जोड़ने का बड़ा विरोध किया है परंतु उसकी अपनी परिभाषा में जन - कल्याण का विचार निहित है । यदि रॉबिन्स की अर्थशास्त्र की परिभाषा का विश्लेषण किया जाए तो यह कहना होगा कि इसके अनुसार व्यक्ति तथा समाज अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने दुर्लभ साधनों का उपयोग किस प्रकार करता है जिससे उसे अधिकतम संतुष्टि ( maximum satisfaction ) प्राप्त हो सके । अधिकतम संतुष्टि का अर्थ अधिकतम कल्याण ही है । दुर्लभ साधनों का अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवंटन ( allocation ) इस प्रकार किया जाना है जिससे समाज की आवश्यकताओं की अधिकतम संभव तुष्टि हो सके । व्यक्ति अथवा समाज की तुष्टि और कल्याण का विचार किए बिना दुर्लभ साधनों के उपयुक्त उपयोग की चर्चा नहीं हो सकती।

 दूसरे , रॉबिन्स की इस बात पर भी कटु आलोचना की जाती है कि अर्थशास्त्र उद्देश्यों अथवा साध्यों ( ends ) के प्रति तटस्थ है । बहुत से अर्थशास्त्रियों का यह मत है कि यदि अर्थशास्त्र को सामाजिक कल्याण तथा प्रगति का साधन बनाना है तो इसे क्या अच्छा है और क्या बुरा के विषय में निर्णय देना होगा अर्थात् यदि अर्थशास्त्र को मानव की समृद्धि को बढ़ाने का साधन बनना है तो इसे साध्यों अथवा लक्ष्यों के प्रति निष्पक्षता को त्यागना होगा । अर्थशास्त्रियों को यह बताना होगा कि कौन - से लक्ष्य अथवा साध्य अच्छे हैं और उनकी प्राप्ति किस प्रकार की जानी चाहिए और कौन - से लक्ष्य अथवा साध्य बुरे हैं जिनको प्राप्त करने का यत्न नहीं करना चाहिए । प्रो . थामस ने ठीक ही कहा है कि " अर्थशास्त्री का कर्तव्य केवल विश्लेषण व खोज करना ही नहीं है बल्कि प्रशंसा और निंदा करना भी है " ( " The function of economist is not only to analyse and explore but also to advocate and condemn " . ) 

 रॉबिन्स की परिभाषा पर एक बड़ी आपत्ति यह भी की जाती है कि इससे तो अर्थशास्त्र केवल मूल्य सिद्धांत ( Value Theory ) ही रह गया है अर्थात् इसमें केवल इस बात का अध्ययन करना रह गया है कि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में साधनों का वितरण किस प्रकार होता है और परिणामस्वरूप इन वस्तुओं व साधनों के मूल्य अथवा कीमतें किस प्रकार निर्धारित होती हैं । परंतु वास्तव में अर्थशास्त्र का क्षेत्र साधनों के आवंटन ( allocation ofresources ) और मूल्य सिद्धांत से कहीं अधिक विस्तृत है । आजकल तो समष्टि - अर्थशास्त्र ( macro economics ) का महत्व बहुत बढ़ गया है जिसमें यह अध्ययन किया जाता है कि देश की कुल राष्ट्रीय आय तथा कुल रोजगार के स्तर किस प्रकार निर्धारित होते हैं । परंतु कुल राष्ट्रीय आय व रोजगार के स्तर का निर्धारण रॉबिन्स की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता । स्पष्ट है कि रॉबिन्स की परिभाषा से अर्थशास्त्र की विषय - वस्तु ( subject - matter ) बहुत सीमित हो जाती है । हाल ही में आर्थिक विकास के सिद्धांत ( Theory of Economic Growth ) का महत्व बहुत बढ़ गया है जिसमें यह अध्ययन किया जाता है कि देश की राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि किन तत्वों पर निर्भर करती है । आर्थिक विकास से देश की उत्पादन क्षमता , राष्ट्रीय आय , प्रति व्यक्ति आय तथा रोजगार वढ़ते हैं । दूसरे शब्दों में , आर्थिक विकास से साधनों की दुर्लभता को कम करने ( to reduce scarcity of resources ) का प्रयत्न किया जाता है । थोड़े से चिंतन से ज्ञात होगा कि आर्थिक विकास के विषय का समावेश रॉबिन्स की परिभाषा में नहीं होता क्योंकि इसमें तो साधनों को निश्चित मानकर उनके केवल वितरण अथवा आवंटन ( allocation ) की बात कही गई है । भारत जैसे अल्प - विकसित देशों के लिए आर्थिक विकास का विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके लोग बहुत गरीब हैं और वे आर्थिक विकास द्वारा अपना जीवन - स्तर ऊंचा करना चाहते हैं । अल्प - विकसित देशों में आर्थिक विकास लाने तथा उसकी गति को तीव्र करने के लिए अभी हाल ही में कई सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है । अतएव रॉबिन्स की परिभाषा की यह बड़ी त्रुटि है कि इसमें आर्थिक विकास जैसे महत्वपूर्ण विषय की उपेक्षा की गई है ।

 प्रो . चार्ल्स शुल्ज़ ( Charles Schultz ) सही लिखते हैं कि " रॉबिन्स की परिभाषा प्रामक है क्योंकि यह आधुनिक अर्थशास्त्र के दो प्रमुख विषयों ' आर्थिक विकास तथा अस्थिरता ' को प्रकट नहीं करती " " ( Robbins ' definition of economics is misleading , in particular it does not fully reflect two of the major concerns of modern economics , namely , growth and instability " . )

रॉबिन्स की परिभाषा से बेरोजगारी की समस्या ( problem of unemployment ) की व्याख्या भी नहीं हो सकती । श्रम अथवा जनशक्ति ( manpower ) उत्पादन का एक आवश्यक साधन है और इसके बेरोजगार रहने का तात्पर्य है श्रमिकों अथवा जनशक्ति की प्रचुरता ( abundance ) न कि दुर्लभता । अर्थशास्त्रियों का कर्त्तव्य है कि बेरोज़गारी जैसी भीषण समस्या के कारणों की व्याख्या करें और उसको दूर करने के उपाय सुझाएँ । 

रॉबिन्स की इस बात पर भी आलोचना की जाती है कि उसने अर्थशास्त्र को सामाजिक विज्ञान ( social science ) के स्थान पर मानवीय विज्ञान ( human science ) बना दिया है । एक साधु , जो हिमालय की गुफा में रहता है , उसे भी अपने निश्चित समय को विभिन्न प्रायोजनों में बांटना होता है अर्थात् उसे भी चुनाव की समस्या का सामना करना होता है और इसलिए वह रॉबिन्स की परिभाषा के अनुसार अर्थशास्त्र के अध्ययन के अंतर्गत आ जाता है । परंतु बहुत से अर्थशास्त्रियों का यह विचार है कि अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है और इसमें उस चुनाव की समस्या का अध्ययन करना चाहिए जिसका सामाजिक पक्ष हो अर्थात् जब एक व्यक्ति द्वारा चयन समाज के अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव डाले ।


Comments

  1. nice
    https://ideashubs.blogspot.com/2022/01/Robbins-ki-durlabha-sambandhi-paribhasha-visheshtayen.html

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रकट अधिमान सिद्धांत(The Theory Of Revealed Preference)

     प्रकट अधिमान सिद्धांत   The Theory of Revealed Preference   प्रकट अधिमान सिद्धांत के प्रतिपादक प्रोफेसर सैमुअल्सन अपने सिद्धांत को ' मांग के तार्किक सिद्धांत का तीसरा मूल' मानते हैं। प्रोफेसर  सैैैैैैमुअल्सन का सिद्धांत मांग के नियम की व्यवहारात्मक दृष्टिकोण से व्याख्या करता है। इस सिद्धांत से पूर्व मार्शल द्वारा विकसित उपयोगिता विश्लेषण हिक्स- एलन का उदासीनता वक्र विश्लेषण उपभोक्ता के मांग वक्र की मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं।         प्रोफेसर सैम्यूलसन ने उपभोक्ता व्यवहार की दो मान्यताओं के आधार पर मांग के नियम की मूलभूत परिणाम निकालने का प्रयास किया है। यह मान्यताएं हैं: (1) अनेक उपलब्ध विकल्पों में से उपभोक्ता एक निश्चित चुनाव करता है। दूसरे शब्दों में वह अपने निश्चित अधिमान को प्रकट करता है यह मान्यता इस सिद्धांत को सबल क्रम की श्रेणी में रख देती है। (2) यदि अनेक विकल्पों में से संयोग B की तुलना एक परिस्थिति में संयोग A का चुनाव कर लिया गया है तो किसी अन्य परिस्थिति में यदि संयोग A तथा सहयोग B में पुनः चुनाव करना हो तो उपभोक्ता संयोग B को नहीं चुन

Synthesis Of Sentences--Use Of Participle(Present,Past and Perfect Participle)

Synthesis में दो या दो से अधिक Simple Sentences को मिलाकर एक नया Simple,Complex या Compound Sentence बनाया जाता है। Synthesis का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जाता है- 1-Combination Of Simple Sentences Into One Simple Sentence 2-Combination Of Simple Sentences Into One Complex Sentence 3-Combination Of Simple Sentences Into One Compound Sentence Formation Of Simple Sentence Participle का प्रयोग करके-- Participle का प्रयोग करके दो या दो से अधिक Simple Sentence को जोड़कर एक Simple Sentence बनाना।Participle का प्रयोग करने से पहले हमें इन्हें व इनके प्रकार को जानना चाहिए।अतः Participle तीन प्रकार के होते है। 1-Present Participle-----M.V.(I form+Ing) 2-Past Participle---------M.V.(III form) 3-Perfect Participle----Having+M.V.(III form)----Active Voice में Having been +M.V.(III form)--Passive मैं Present Participle का प्रयोग करके---यह क्रिया के अंत मे ing लगाने से बनता है।हिंदी में इसका अर्थ "हुआ या करके होता है।इसमें दो कार्य साथ- साथ चल रहे होते हैं।