अर्थशास्त्र-साम्य की अवधारणा. (THE CONCEPT OF EQUILIBRIUM

 

1. साम्य की अवधारणा.           (THE CONCEPT OF EQUILIBRIUM )

 साम्य शब्द दो लैटिन शब्दों के योग से बना है , जिसका अभिप्राय सन्तुलन से होता है । अर्थशास्त्र में साम्य अथवा सन्तुलन शब्द का महत्वपूर्ण स्थान है । अर्थशास्त्र में इस शब्द को भौतिकशास्त्र ( Physics ) से लिया गया है । भौतिकशास्त्र में साम्य शब्द का प्रयोग एक ऐसी दशा को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है , जिसमें विरोधी शक्तियां आपस में एक - दूसरे को समाप्त कर देती हैं । अर्थशास्त्र में ' साम्य ' शब्द का अर्थ गतिहीनता से नहीं लगाया जाता है । यहां साम्य का अभिप्राय एक ऐसी स्थिति से है जिसमें कार्यशील शक्तियां एक - दूसरे के प्रभाव को नष्ट कर देती हैं , इसमें गति की अनुपस्थिति नहीं होती है , बल्कि गति की दर में परिवर्तन की अनुपस्थिति हो जाती है । ' 

साम्य ' की परिभाषा ( Definition of Equilibrium ) साम्य की प्रमुख परिभाषाओं को नीचे दिया जा रहा है :   

   ( i )    प्रो . जे . के . मेहता ( J. K Mehta ) के अनुसार , “ अर्थशास्त्र में साम्य गति परिवर्तन को स्वीकार नहीं करता है , जबकि भौतिक विज्ञान में साम्य गति को ही अनुपस्थित मानता है ।                                 प्रो . स्टिगलर के समान प्रो . मेहता भी साम्य की धारणा को निष्क्रिय नहीं मानते हैं ।                                     

   ( ii )    प्रो . स्टिगलर ( Stigler ) के अनुसार ,साम्य वह अवधारणा है , जिसमें गति की खास प्रवृत्ति न हो । हम यहां पर गति की खास प्रवृत्ति पर इसलिए बल देते हैं कि यह निष्क्रियता की स्थिति की द्योतक नहीं होती है , बल्कि शक्तिशाली शक्तियों द्वारा एक - दूसरे के प्रभाव को नष्ट करने वाली होती है । ' '.                                                         [ प्रो . स्टिगलर की परिभाषा का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि साम्य का सन्तुलन में विश्राम का अंश तो नहीं है , परन्तु सन्तुलन व्यवस्था प्रभावपूर्ण अवश्य रहती है अर्थात् हलचलपूर्ण रहती है । अतः साम्य मृत नहीं हो सकता

( iii ) प्रो . ट्राइबोर स्टोस्की ( Prof. Tribor Scitovsky ) के अनुसार , कोई बाजार या अर्थ - व्यवस्था , व्यक्तियों व फर्मों का समूह तब तक साम्य की अवस्था में रहता है जब तक कि संगठनों का कोई सदस्य अपने वर्तमान व्यवहार को बदलने के लिए बाध्य न हो जाय । ' 

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र में सन्तुलन का अर्थ एक सक्रिय सन्तुलन की स्थिति से होता है , न कि एक निष्क्रिय स्थिति से । दूसरे शब्दों में , यह ऐसी स्थिति नहीं है . जिसमें सभी शक्तियों का कार्य समाप्त हो गया हो , बल्कि एक ऐसी स्थिति से है , जिसमें विभिन्न कार्यवाहक शक्तियां एक - दूसरे को सन्तुलन में रखती हैं ।

 साम्य की धारणा को निम्नलिखित उदाहरणों से और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है : 

( 1 ) एक उपभोक्ता उस समय साम्य की दशा में होगा जब वह अपने द्रव्य को विभिन्न आवश्यकताओं में इस प्रकार से व्यय करे कि उसे उनसे अधिकतम सन्तुष्टि मिले , जब उपभोक्ता इस बिन्दु पर पहुंच जाता है तब वह हमेशा इसी बिन्दु पर बना रहना चाहता है । क्योंकि इस बिन्दु से हटने पर उसका सन्तुलन बिगड़ जाता है और उसकी सन्तुष्टि में कमी आ जाती है । 

 (2 ) जो बात एक व्यक्ति के सन्तुलन के लिए आवश्यक है वही बात एक फर्म के लिए भी आवश्यक होती है । एक फर्म का साम्य उस बिन्दु पर होता है जहां उसको अधिकतम लाभ प्राप्त होता है । ऐसी दशा में एक फर्म भी हमेशा इसी बिन्दु पर रहना चाहेगी । यदि फर्म अपने उत्पादन को उस बिन्दु से . कम या अधिक करती है , तो ऐसी दशा में उसके लाभ में कमी आयेगी 

( 3 ) एक उत्पादक उस दशा में साम्य की स्थिति में होगा , जब उसे अधिकतम लाभ प्राप्त होगा , यदि उत्पादक अब उत्पादन के साधनों में हेरा - फेरी करने लगे तो स्पष्ट है कि उसकी आय में कमी होगी ।

निष्कर्ष- अतः उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि साम्य एक ऐसी स्थिति है , जहां पर एक उपभोक्ता को अधिकतम सन्तुष्टि , एक उत्पादक को अधिकतम लाभ और एक फर्म को अधिकतम उत्पादन प्राप्त होता है । सन्तुलन के टूट जाने पर सन्तुष्टि , लाभ व उत्पादन की मात्रा में कमी होती है और व्यवस्था अव्यवस्था में बदल जाती है ।

साम्य के प्रकार (स्थिर,अस्थिर तथा तटस्थ साम्य)

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